समर्पण अधिनियम की ज़रूरत

भाग – 1

भारत मे जातिवाद यदि धर्मग्रंथो के आधार पर खत्म करने की कोशिश की जाए तो तर्क कम पड जाएंगे और यह खत्म भी नहीं हो पाएगा उदाहरण हज़ारो जातिवाद विरोधी बुद्धिजीवी / एक्टीविस्ट हुए जिन्होंने धर्म के दायरे के अंदर रहकर / निकलकर / धर्म बदलकर कई तर्क दिये पर जातिवाद वही का वही रहा।

फिर भी उपाय के तौर पर एक मात्र उपाय निकला और वह था ‘अंतर जातिय विवाह’ । पर क्या जातिवाद रोकने के लिए यह उपाय कारगर रहा? इस विषय मे दो पहलू सामने आते है —

A — अंतर जातिय विवाह और समाज

भारत मे विवाह के विषय समानतः माता-पिता व घर के बड़े बुजुर्गो द्वारा ही किए जाते है इसमे सबसे महत्वपूर्ण पहले धर्म देखा जाता है, फिर जाति – क्यों? क्योंकि एक जाति मिलकर ही एक जाति का एक विशेष समाज बनता है और भारत मे ‘जातिगत समाज’ चाहे वह किसी भी वर्ण/जाति का हो लोग समाज के दायरों मे रहकर ही विवाह करते है, क्योंकि 'जातिगत समाज' एक ऐसा समूह है जो मानसिक रूप से और सामाजिक रूप से भी व्यक्ति को सुरक्षा और एकता होने की शक्ति प्रदान करता है।

ऐसे लोग जो अंतरजातिय विवाह करते है उसे समाज से अलग-थलग होने का डर भी रहता है और कई शक्तिशाली परिवार / समाज ऐसे लोग को समाज से निकाल भी देते है, हुक्का-पानी बंद कर देते है और कई तो ऑनर किलिंग के फरमान सुना देते है और किलिंग भी कर देते है। (इसलिए भारत के कई पिछड़े राज्य भी अंतरजातीय विवाह को डर के कारण प्रोत्साहित ही नहीं करते हैं।)

(यह परिस्थितियां सामान्यतः शहरों मे विकसित तथा शिक्षित समाज / परिवार होने के कारण कम देखी जा सकती है,पर गाँवों मे अभी भी दो अलग जाति या धर्मों के विवाह को परिवार व समाज की इज्ज़त / संस्कारों के खिलाफ माना जाता है, इसलिए गाँवों मे ऑनर किलींग जैसी घटनाएं हो जाती है।)

उपरोक्त परिस्थितियों मे एक बात स्पष्ट रहती है कि भारत सरकार कानूनी रूप से जोड़े का समर्थन करती है और साथ ही साथ अंतरजातिय विवाह को प्रोत्साहित भी करती है जिससे की समाज की सबसे छोटी इकाई 'परिवार' मे जातिवाद से दूर,जातियों प्रति समभाव आए और समाज तेज़ी से आगे बढ़े।

B — कारगरता

आज भी शहरों व गाँवों मे अधिकांश विवाह एक ही समाज व जातियों मे किए जाते है क्योंकि सामान्यतः लोग सामाजिक संरचना को तोड़ना नहीं चाहते है जो थोड़े बहुत लोग अंतरजातीय विवाह करते है वे सामाजिक बदलाव लाने के लिए बोहोत ही नगण्य है और वैसे भी दो लोग शादी कर रहे है न की राजनैतिक पार्टी बना रहे है।

समाज मे अंतर जातिय विवाह होना एक बदलाव का कारक तो है पर इसकी भी सीमाएं है जहाँ पहुंचकर यह भी जातिवाद के खिलाफ मूक हो जाता है।

  1. यदि प्रेम विवाह (अंतरजातिय) घरवालों की बिना मर्ज़ी के हुआ तो युगल अपने आप को परिवार तथा समाज असंगत पाएगा और यदि मर्ज़ी से विवाह हुआ तो समाज साथ आए या ना आए, जोड़े के लिए आगे की राह थोड़ी आसान ज़रूर हो जाती है। परंतु विभिन्न जातियों के समाज और जातिवादी विचारधारा के कारण यह उपाय ज़्यादा कारगर नहीं सिद्ध हो पाया है।
  2. एक बड़ा बिन्दु ये भी है कि भारत सामान्यतः पुरुष प्रधान देश है इसलिए पुरुष की जाति आने वाले बच्चे की जाति जानी जाएगी जिसके कारण जाति बनी रहेगी और यदि जाति बनी रहे तो 'जातिवादी समाज' भी जीवित ही रहेगा।
  3. आज के आधुनिक भारत में राजनीतिज्ञो ने अधिकांश जातियों की "जाति" का ब्रांड brand बना दिया है जिसे व्यापक रूप में वॉट्सएप, फ़ेसबुक, ट्वीटर आदि में देखा जा सकता है और इसका सम्पूर्ण उपयोग केवल राजनीतिक उन्माद के लिए ही होता है । ये राजनीतिज्ञ किसी दूसरी जाति में विवाह होते देख "जाति की प्रतिष्ठा और सम्मान" पर प्रश्न लगाकर उन्माद फ़ैला देते है। जिससे लोग स्वतः ही अंतर जातिय विवाह के विषय पर सोचते ही नहीं है या सोचकर झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा और समाज के डर कारण हतोत्साहित हो जाते हैं। (जबकि किसी भी जाति विशेष का समाज ना किसी "जाति भाई" को नौकरी देता है,ना कोई आर्थिक लाभ देता है, ना किसी बीमारी में उपचार कराता है,ना ही कोई दुख में शामिल होता है।)

भाग — 2

भारत की लाखों साल पुरानी संस्कृति ने भारत के लोगों मे मनुवाद ने एक चाही और अनचाही आदत सभी धर्मों के लोगों को एक अभिशाप के स्वरूप मे दी है जो आज भी 21 वी सदी के भारत मे हर एक भारतीय के दिमाग मे जाने / अनजाने रूप से छुपी हुई है चाहे वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख़, ईसाई, बौद्ध, जैन या अन्य भारत के प्रचलित धर्म हो।

वह आदत है – यदि कोई भारतीय दूसरे भारतीय से मिलता है तो उससे सबसे पहले के प्रश्न मे पूछता है नाम और यदि नाम एक ही धर्म का हुआ तो अब व्यक्ति जानना चाहेगा उसका उपनाम जिससे की वह यह समझ सके की वह किस जाति का है और सामाजिक संरचना (जातिवादी संरचना) मे किस जगह स्थान रखता है।

यह आदत एक आदत न होकर 21 वी सदी के भारत का आधुनिक जातिवाद है जो की आज भी भारत को अंदर ही अंदर जातिवादी बनाने के लिए पर्याप्त है। यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है की यह आदत सभी धर्मों और ST, SC, OBC, GENERAL की सभी जातियों व लोगों मे एक समान रूप से विद्यमान है।

भाग — 3

इस भाग को समझने के लिए हमें वर्णगत असमानता एवं जातिगत श्रेष्ठता की भावना की परिस्थितियों को समझना होगा —

A — वर्णगत असमानता

यह इतिहास के सामाजिक आयाम दर्शाती है, इसे समझने के लिए हम चारों वर्ण मे से उदाहरण के तौर पर शूद्र वर्ण को लेते है । जिसके अंतर्गत सैकड़ो जातियां आती थी, इन जातियों के अंदर सुक्ष्मावलोकन करे तो सभी जातियां अलग और उनके काम अलग, इसके कारण वह एक वर्ण मे होने के बावजूद यह जातियां वर्णगत असमानता दर्शाती थी।

इस वर्णगत असमानता के कारण यदि इन सैकड़ो जातियों मे से एक जाति पर अत्याचार होता था तो सम्पूर्ण शूद्र वर्ण खड़ा नहीं होता बल्कि केवल उसी जाति के लोग ही संघर्ष करते थे।

B — जातिगत श्रेष्ठता की भावना (Superiority Complex)

यह वर्णगत असमानता की तरह ही है जिसके अंतर्गत हम यदि वैश्य वर्ण का उदाहरण ले तो उस वर्ण मे सैकड़ो जातियां आती थी, इन सैकड़ो जातियों मे भी ऊची से नीची जाति तक का एक अघोषित क्रम है जिसे, समाज अच्छी तरह से समझता था यानि यह जातिवाद के अंतर्गत एक और जातिवाद है इसलिए वैश्यों मे भी एक जाति दूसरी जाति से अपने आप को श्रेष्ठ समझती है और यह क्रम चलता रहता है जिसके कारण अलग-अलग जातियां अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ समझती है, प्रतियोगिता करती है, संघर्ष भी करती है, इसलिए एक ही वर्ण (वैश्य) होने के बावजूद अलग अलग पहचान बनाने की कोशिश करती था।

यही जातिगत श्रेष्ठता की भावना का उदाह्ररण है।

  • इससे एक बात और निकल कर आती है कि जो जातिवादी लोग/समाज अपने आप को दूसरे से बड़ा मानता है वो ओटोमेटिक (स्वतःही) किसी अन्य जाति/समाज से छोटा होगा, इससे उनमे बड़ेपन की भावना होगी तो छोटेपन की भावना का संचार स्वतः हो ही जाएगा और इस कारण भी भारत के लोग लाखों वर्षों से जातिवादी चक्र मे फसे हुए है।
  • भारत के नॉर्थ ईस्ट के सभी आदिवासी बाहुल्य राज्य भी इसी जातिगत श्रेष्ठता की भावना के कारण ही लगातार जल रहे है यहाँ के अधिकांश लोग आदिवासी समुदाय से है लेकिन एक दूसरे के प्रति जातिगत प्रतियोगिता / भावनाओं के कारण एक नहीं हो पा रहे है इसी के कारण इतिहास मे हिंसा, हत्याएं तथा अनेकों संघर्ष हुए है और आज भी हो रहे है। (इसका फायदा उठाकर दुश्मनदेश एक जाति के लोगों को हथियार और धन देकर फूट डालो राज करो की नीति चलाते है, और पूरे नॉर्थ ईस्ट के राज्यों का विकास की धारा को ही रोक देते है।)

यदि हम 4 वर्णीय जातिवाद रूपी महामारी के उपचार की शुरुवात देखे तो भारत की आज़ादी के बाद आज़ाद भारत सरकार बनने और डॉ बाबा साहिब अम्बेडकर के द्वारा संविधान लिखने से हुई ...

इन उपचारों मे —

आज 2020 मे इन सब उपचारों के फलस्वरूप आज SC-ST-OBC के कुछ प्रतिशत लोग ही मुख्य धारा मई शामिल हो पाये है और सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व न्यायिक लाभ प्राप्त कर पाये है।

ऐसा क्यों हुआ कि सभी लोग लाभ प्राप्त नही कर पाये है?

क्यों आज भी SC-ST-OBC जातियो के लोग सामाजिक स्तर मे भेदभाव के शिकार है? (चाहे वह शहरी हो या ग्रामीण, पढ़ालिखा हो या अनपढ़)

जवाब मे इसके कारण कई है परंतु एक मुख्य है जो अगले सवाल मे निहित है —

जाति जाती क्यों नहीं है?

चूकि जाति जन्म से ही भारत के लोगों के साथ चिपक जाती है और ऐसे मे आप उच्च जाति के हुए तो जीवन भर गर्व से जीएंगे आर समाज भी आपका सम्मान करेगा (चाहे आप अनपढ़ क्यों न हो)। दूसरी ओर यदि छोटी या नीची माने वाले जाति मै पैदा हुए (चाहे आप भारत के सबसे योग्य व्यक्ति न हो) समाज आपको छोटी जाति के होने का एहसास व अपराध बोध हर पल करवाता रहता है।

इसलिए अधिकांश भारत मे SC-ST-OBC जातियों के लोग मानसिक या शार्यरिक या दोनों रूप से पीड़ित प्रताड़ित और शोषित है।

इन्ही सब करणों से मुक्ति के लिए समर्पण अधिनियम का उपचार ले आया जाए तो जहरीले जातिवादी पेड़ की जड़ो को मूल समेत भारत से उखाड़ कर फ़ेका जा सकता है।